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देसी दर्शकों के दिलों से दूर है फिल्म “गहराइयां”, ऊंचाइयों पर रहने वालों की दिखती है अवसरवादी कहानियां

(फिल्म समीक्षक महेश कुमार मिश्र की कलम से) : हॉलीवुड के प्रसिद्ध एक्टर, निर्देशक डेनजल वाशिंगटन से जब अपने एक इंटरव्यू में एक काले निर्देशक के रूप में काले लोगों की कहानी को निर्देशित करने का जब सवाल उठाया गया तो उन्होंने एक सामान्य लेकिन प्रभावशाली उत्तर देकर फिल्म मेंकिग की विधा को स्पष्ट किया। उस उत्तर में उन्होंने Culture relation यानि निर्देशक का संस्कृति से जुड़ाव बताया।

देसी दर्शकों से दूरे है ‘गहराइयां’

संस्कृति शब्द को फिल्म “गहराइयां” के माध्यम से देखें तो निर्देशक शकुन बत्रा ने इस फिल्म के माध्यम से अमीर वर्ग (Elites) की कहानियों को चरित्रों और घटनाक्रम के माध्यम से समावेशित किया है। इस फिल्म की कहानी आम दर्शकों को शायद इतनी पसंद न आए क्योंकि इस कहानी के माध्यम से एक नये तरह के सिनेमा को दिखाने की कोशिश की गयी है।

अमेजन प्राइम पर फिल्म रिलीज

फिल्मों में अमीर लोगों की जीवन को एक शैली में बांध कर सदैव प्रदर्शित किया जाता रहा है लेकिन “गहराइयां” फिल्म में इस शैली से उलट, अमीर वर्ग को यथार्थ के दृष्टिकोण के साथ, अवसरवादी घटनाक्रम में दिखाकर फिल्म को एक बेहतरीन अंदाज दिया गया है। अमेजन प्राइम पर फिल्म रिलीज इसका प्रमुख कारण भी है क्योंकि यह एक खास दर्शकवर्ग को केन्द्रित करती हुई दिखती है।

इस फिल्म के प्रमुख पात्र अलीशा (दीपिका पादुकोण), टीया (अनन्या पाण्डेय), ज़ेन (सिद्धांत चतुर्वेदी), करन (धैर्य), नसीरुद्दीन शाह (विनोद खन्ना) और जितेश (रजत कूपर) हैं। इन सभी पात्रों में एकरूपता देखने को मिलती है क्योंकि सभी पात्र अवसरवादी हैं। ऐसा सिनेमा में पहली बार हुआ है कि पात्रों में एक जैसी समानता देखने को मिलती है। आम दर्शक फिल्म से शायद इसलिए भी जुड़ नहीं पा रहें हो क्योंकि फिल्म में अतिसूक्ष्मवाद (Minimalism) का प्रयोग करते हुए पात्रों की प्रमुख घटनाओं को बहुत ही सामान्य तरीके से प्रस्तुत किया गया है।

भविष्य में इस फिल्म पर होगी चर्चा

पहले एक घंटें में लव और रियलिटी को फिल्म धीमे तरीके से प्रस्तुत करती हैं लेकिन उसके बाद असामान्य होती परिस्थितियों में चरित्रों के सही रंग सामने आना शुरू हो जाते हैं। इस फिल्म में नायक ढूंढना मुश्किल हैं क्योंकि ये कहानी खास वर्ग की होने के बावजूद, मानवीय स्वभाव को यथार्थ के साथ बिल्कुल निकट ले जाती है। इस कहानी में सही मायनों में नायक के रूप में नसीरूद्दीन शाह ही हैं क्योंकि त्याग के रूप में अपनी अवसरवादिता से वह परे उठ चुके होते हैं।

शकुन बत्रा ने सभी चरित्रों के सफर को कहीं ने कहीं विनोद (नसीर साहब) के व्यक्तित्व के साथ में ही जोड़ा है। इस फिल्म को देखने के साथ गुलजार की फिल्म ‘इजाज़त’ की भी याद आ ही जाती है, जिसमें सभी पात्र अपनी जगह सही होते हैं, सिर्फ परिस्थितियों में फैसले गलत ले लिये जाते हैं।

फिल्म में कौशल शाह ने कमाल की सिनेमाटोग्राफी की है क्योंकि ज्यादातर रियल लोकेशन पर Natural Lights का प्रयोग कर बेहतरीन सीन दर्शाये गये हैं। हॉलीवुड हो या आम फिल्में, मुम्बई को पहली बार Elite के दृष्टिकोण से दिखाया गया है, जहां गरीबों की कोई भी जगह नहीं हैं। इस फिल्म में एक्टर सरलता को धारण किये हुए और यथार्थ के करीब इसलिए भी लगते हैं क्योंकि वह भी कहीं न कहीं उसी वर्ग विशेष से ताल्लुक रखते हैं। आज के समय में यह फिल्म भले ही दर्शकों द्वारा प्रोत्साहित नहीं की गयी है लेकिन भविष्य में सिनेमा विषय में इस फिल्म की चर्चा अवश्य होगी।

लेखक परिचय

डॉ. महेश कुमार मिश्रा, पिछले 13 वर्षों से जनसंचार, पत्रकारिता एवं सिनेमा से जुड़े हुए हैं। इन्होंने FTII, Pune से निर्देशन पाठ्यक्रम में अध्ययन किया है और सिनेमा शोध के विषयों से जुड़े हुए हैं। 

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